सामाजिक विभेदों को दूर करने के लिए और उपाय
होने चाहिए?
प पू सरसंघचालक - एक सदा के लिए चलने वाला उपाय है कि अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, आजीविका के और सामाजिक आचरण में, सभी भेदभावों को नकारते हुए उचित भूमिकाएं लेना। प्रत्यक्ष व्यवहार की बातों के लिए अपनी आदत बदलना। जैसे अनेक भाषाओं में जातिवाचक मुहावरे हैं। भेदभाव का जो युग था, उसमें तथाकथित ऐसी जातियों, जिनको पिछड़ा कहा जाता था, अस्पृश्य कहते थे, ऐसी जातियों को जरा छोटा स्थान देने वाली कहावतें, मुहावरे हैं। हम उनका उपयोग करते हैं, तो उसके पीछे निहित द्वेषभाव चाहे नहीं लाते हैं, परंतु शब्द तो अस्तित्व में है और जो भेदभाव के शिकार हुए हैं, उनके हृदय में घर कर गए हैं। हमको ऐसी आदतें बदलनी पड़ेंगी। मन और विचार सहमत होने के बावजूद शरीर की आदत हो जाती है, वह बदलनी होगी। बोलने की आदत बदलनी पड़ेगी। हमारा व्यवहार पुरानी विषमता को त्यागकर समतायुक्त हुआ कि नहीं -लोग इसकी परीक्षा करेंगे। खासकर वे लोग इसकी परीक्षा करेंगे, जिनको हमको जोड़ना है, जिन अपनों को फिर से अपना बनाना है। सहज व्यवहार में भी अपने आप को परिष्कृत बनाकर प्रयोग करना होगा। उदाहरणार्थ- मान लीजिए, मैं किसी के घर गया। मुझे प्यास नहीं है, पानी आया और मैंने कहा, पानी नहीं पीना है, तो मेरे हृदय में भले ही कुछ न हो, लेकिन वहां शंका खड़ी होती है कि हमारे यहां पानी नहीं पीना चाहते। पूजनीय गुरुजी ने एक बार बहुत अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया। एक स्वयंसेवक ने कहा कि मेरी झोंपड़ी में आएं, चाय पीने के लिए, पास में ही है। वह झोंपड़ी में रहने वाला स्वयंसेवक था। गुरुजी ने कहा, चलो। एक तो ऐसा वर्ग, दूसरा बहुत गरीब। गुरुजी गए तो एक-दो कार्यकर्ता भी साथ थे। आधी झोंपड़ी में यह भी दिख रहा था कि घर की माता चाय बना रही है। बर्तन गंदा जैसा था, छलनी नहीं थी, कपड़े से चाय छानी गई, कपड़ा भी कैसा था, चाय आई तो एक ने कहा, मैं चाय नहीं पीता, दूसरे ने कहा, सुबह से बहुत चाय पी चुका हूं। गुरुजी ने चाय पी ली। बाहर जाने के बाद कार्यकतार्ओं ने पूछा, गुरुजी आपने ऐसी चाय कैसे पी ली? गुरुजी ने कहा, आप लोग उसकी चाय देख रहे थे! मैं तो उसका प्रेम पी रहा था। यही सहजता रखिए। प्रेम-सम्मान समाज की जरूरत है। तो अपने व्यवहार को ऐसा रखना चाहिए जिससे उनकी प्रेम-सम्मान की अपेक्षा की पूर्ति हो। ऐसे व्यवहार की आदत डालनी पड़ेगी। दूसरा, सार्वजनिक जीवन में ऐसे प्रश्न आते हैं। अंतरजातीय विवाह होता है, विरोध भी खड़ा होता है। संघ के स्वयंसेवक उसके समर्थन में खड़े दिखने चाहिए। होना भी चाहिए और सामान्यत: ऐसा है भी। यदि कोई अंतरजातीय विवाहों के संदर्भ में सर्वेक्षण करे तो सबसे ज्यादा स्वयंसेवक ही मिलेंगे। अनौपचारिक चर्चा में कई बार यह अनुभव देखने में आया है। महाराष्ट्र का जो पहला अंतरजातीय विवाह था उससे दो संदेश गए थे। एक डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का और दूसरा गुरुजी का। गुरुजी ने संघ के स्वयंसेवकों को ये लिखा था कि जो शारीरिक आकर्षण के चलते नहीं, बल्कि समाज में जो जाति प्रथा है, उसका विरोध दर्ज करने के लिए अंतरजातीय विवाह कर रहे हैं, मैं उनके इस अंतरजातीय विवाह का समर्थन भी करता हूं और अंतरजातीय विवाह को शुभकामनाएं भी देता हूं।
संघ के स्वयंसेवकों की इस प्रकार की भूमिका सार्वजनिक रूप से होनी चाहिए। स्वयंसेवक को किसी तात्कालिक भावनाओं में न बहते हुए, अहंकार में, इधर-उधर की चपेट में नहीं आना चाहिए। संघ के स्वयंसेवक समाज की एकात्मता, अखंडता, समरसता को ध्यान में रखकर भूमिका तय करें और उसका निर्भय रूप से निर्वहन करें, इसकी आवश्यकता है।
शिवाजीप्रभात
Friday, March 31, 2017
सामाजिक विभेद
समरसता
प्रश्न - समरसता संघ के स्वभाव में 1925 से ही रही है। आगे चलकर इस आग्रह के पीछे बालासाहब देवरस बड़ी प्रेरणा रहे। उनके योगदान को आप कैसे देखते हैं?
प० पू० सरसंघचालक - हिन्दू संगठन समरसता के बिना असंभव ही है और इसलिए संपूर्ण हिन्दू समाज को एक करने के लिए उसकी दृष्टि भेदविहीन होनी, आवश्यक है। इसलिए समरसता की दृष्टि संघ के स्वभाव में ही है। परंतु संघ की शक्ति क्रमश: बढ़ी है। संघ में तो संघ के जन्म से ही यह व्यवहार है, परंतु बालासाहब जब सरसंघचालक बने, उस समय समाज द्वारा संघ से कुछ सुनने और कुछ मात्रा में उस पर विचार करने और प्रयोग करने की स्थिति भी बन रही थी। आज संघ की बात समाज सोचेगा, करेगा इसका परिमाण बहुत बड़ा है, तब उतना बड़ा नहीं था, लेकिन इसका प्रारंभ हो चुका था। संघ का यह समतामूलक, समरसतामूलक दृष्टिकोण समाज के लिए भी आवश्यक है। (यह दृष्टिकोण) समाज में भी जाना चाहिए। इस दृष्टि से सरसंघचालक बनते ही बालासाहब ने विषय रखा कि अब संघ का मुख्य ध्येय सामाजिक समरसता है। इसकी स्पष्टता स्वयंसेवकों में भी हो और समाज में भी हो, इसलिए बालासाहब ने बहुत सोच-समझकर वसंत व्याख्यानमाला का भाषण कुछ महीनों तक तैयारी के बाद दिया। संघ का इसके बारे में विचार, व्यवहार तो पहले से था लेकिन पीछे जो विचार प्रक्रिया थी, वह स्वयंसेवकों को भी स्पष्ट हो गई और समाज में भी एक संदेश गया।
Monday, March 20, 2017
RSS activity
Saturday, February 25, 2017
नियम
यम
Friday, February 24, 2017
Vidyanjali
International day of Yoga
International Day of Yoga is also called as the World Yoga Day. The idea of International Day of Yoga was first proposed by the Honourable Prime Minister of India, Shri Narendra Modi, during his speech at the UNGA, on 27 September 2014. United Nations General Assembly declared 21st of June as the International Day of Yoga on 11th of December in 2014. Since 2015, 21st June is always celebrated as the International Day of Yoga all over the world. This year, on the occasion of International Day of Yoga, Ministry of AYUSH has decided to invite suggestions/ideas/plans/proposals from Youth/ Youth Clubs/Senior citizens/Professionals/State Governments/Yoga Schools etc. for Celebrating the International Day of Yoga-2017, which can be undertaken on that day.